मेरी तन्हाई मेरी हमदम है,
मेरे अक़्स में वो बरहम,
जो दे कोई गम मुझे,
मेरी जख्मों का वो मरहम है,
मेरे अश्कों में जो पुरनाम,
मेरी तन्हाई ही मेरी महरम है..!
मेरी तन्हाई मेरी हमदम है,
मेरे अक़्स में वो बरहम,
जो दे कोई गम मुझे,
मेरी जख्मों का वो मरहम है,
मेरे अश्कों में जो पुरनाम,
मेरी तन्हाई ही मेरी महरम है..!
ज़माने से थक कर खुद की ही जुस्तजू में निकलें हैं,
आज सफर में साथ काफिले की आरज़ू में निकलें हैं,
हम तन्हा थे, ताउम्र तन्हा ही रहे,
खुद से करने खुद ही गुफ्तगू निकले है,
जिससे मिलकर फिर मुझे किसी इत्र की ज़रूरत ना रहे,
तलाश करने कोई ऐसी ख़ुशबू में निकले हैं,
उसका कहना था के वो इश्क़ नहीं जानता,
उसकी आलमारी से दो चार खत उर्दू में निकले हैं..!
किसी की आबरू के खातिर क्या कोई मरता है,
किसी की जुस्तजू में क्या कोई आह भरता है,
किसी की गुफ्तगू से क्या कोई बिखरता है,
दिल_ए_दर्द भी क्या कोई मरहम से सुधरता है,
किसी के हुबाहु भी क्या कोई मिलता है,
नशा ये आरज़ू का बताओ कैसे उतरता है..!
मैंने उस पर लिखी है एक ग़ज़ल,
वो ऐसी है जैसे कीचड़ में खिलता कमल.
मैंने भेजा है एक गुलाब उसको,
ये है मेरी तरफ से छोटी सी पहल,
क्या बताऊं? कितनी लावारिश हैं यादे उसकी,
उसकी यादों से मेरी इबादत में पड़ता है खलल,
कितने भी कठिन मरहलें हों ज़िन्दगी में,
मां की दुआए साथ हो तो है हर काम है सहल,
मुझको यूं नज़र अंदाज़ करके ना जा,
मुझको उजाड़ने में सिर्फ तेरा है दखल,
मुझसे लग कर ही बुनती है वो सारे सपने,
उसके लिए मेरा कंधा ही है रहल..!
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