निगाहे मुंतज़िर थी उनके दिदार की
अब तलबगार है वो हमारे,
तब बंधन में थे हम खामोशी के
आज तरसते वो अल्फ़ाजो को हमारे,
ख्वाबों में भी दिदार से ना था हमें सुकुन
आज गवारे नहीं है उन्हें ये पर्दे हमारे..!
निगाहे मुंतज़िर थी उनके दिदार की
अब तलबगार है वो हमारे,
तब बंधन में थे हम खामोशी के
आज तरसते वो अल्फ़ाजो को हमारे,
ख्वाबों में भी दिदार से ना था हमें सुकुन
आज गवारे नहीं है उन्हें ये पर्दे हमारे..!
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