आंखों में तेरा समाया हुआ रंग ओ जमाल रुख़्सत कर दिया,
मैंने अपनी ज़िन्दगी का एक और साल रुख़्सत कर दिया,
रुख़्सत कर दिया उस हर एक चीज़ को जिसके सामने आ जाने से मुझे तेरी याद आती थी,
में रोता था तन्हा किसी कमरे के कोने में बैठ कर और खामोशी मुस्कुराती थी,
मैं जब भी मेज़ पर बैठता था, काग़ज़, कलम और कुछ रंग लेकर,
ज़ेहन में बस तेरी तस्वीर आती थी और बना देता था,
लेकिन अब अपने हाथों से मैंने ये कमाल रुख़्सत कर दिया,
मैंने अपनी ज़िन्दगी का एक और साल रुख़्सत कर दिया,
बेवक्त आकर मेरे दिल के फले फूले दरख़्त को पतझड़ में तब्दील कर देता था,
कभी आता था तो आकर अकेला जाता था तो कभी मेरी खुशी,
मेरी हंसी, मेरे ठहाके मेरा खिलखिलाना मुझसे छीन कर ले जाता था,
ये तेरा ख़्याल ही तो था जो ऐसा करता था मेरी आंखो को नम करता था,
लेकिन अब दिल और दिमाग़ से तेरा ख़्याल रुख़्सत कर दिया,
मैंने अपनी ज़िन्दगी का एक और साल रुख़्सत कर दिया,
वो चाय आज भी याद है जो हम मिल कर पिया करते थे,
वो तुम्हारा चुस्कियां लगाना, सुर सुर कर के सारी चाय पी जाना
और फिर हंसकर दूर भाग जाना मेरे हाथ न आना,
मैं अक्सर सवाल पूछा करता था उसकी तबियत के बारे में,
कि मुझ से बिछड़ कर अब तुम्हारे दिल को राहत तो है न?
गुज़रे वक्त के जैसी मेरी चाहत तो है न?
तुम्हारे दिल पे अब भी मेरी हुक़ूमत तो है न?
मेरे हंसी से, आवाज़ से मोहब्बत तो है न?
लेकिन अब आंख से जुबान से ये सवाल रुख़्सत कर दिया,
मैंने अपनी ज़िन्दगी का एक और साल रुख़्सत कर दिया...