मैं कभी कह न सका बात अपनी,
है बहुत अजब सी ये जात अपनी,
थीं सभी की निगाह हमारी ज़ानिब,
किसी सूरत न हुई मुलाक़ात अपनी,
वो आई भी हंस के बोलती भी रही,
मगर छुपा गई हर एक बात अपनी,
वो जो मुझे पसंद है, शहजादी है,
उस जैसी तो नहीं है औकात अपनी,
सारे मौसम बस महलों के लिए हैं,
फूस की गर्मी न ही बरसात अपनी,
कैसे आए इस मुआशरे में हम दर्दी,
सबको लगती है ऊँची जात अपनी,
जबसे बिछड़ गया है हमसफ़र मेरा,
तारे गिनते हुए कटती है रात अपनी,
गीबतें छोड़ दो, मान लो ये मशविरा,
या तो चुप रहो या करो बात अपनी..!