गुजरे नहीं गुजरती राते, दिन भी कहा ढलता है.!
इज़्तिराब भरी गुजरी सारी दोपहर भी,
लगा फिर गुरूब-ए-आफताब खामखां जलता है.!
चाहत के साथ ये खफा मौसम कहा बदलता है.!
कहो सब्र कितना और,
उसका लिखा अफसाना कहा टलता है.!
ना-फहम आदतों मिजाज़ कितना झगड़ता है.!
बहक कर हजारों दफा इस काश से,
इसी से मेरा साया हर बार लिपटता है.!
है चराग़ रक्खा ऐसा न बुझे न ही जलता है.!
उस बे चिराग शब में चमकते ख़्वाब देख,
दिल ने फिर कहा ऐसा कहा चलता है..!